UP TET -पर्यावरण-अध्ययन का अर्थ क्या है..
पर्यावरण-अध्ययन परिवेश के सामाजिक और भौतिक घटकों की अन्तःक्रियाओं का अध्ययन है। वास्तव में ये घटक मिलकर ही हमारे सम्पूर्ण परिवेश का निर्माण करते हैं। अतः जब हम अपने परिवेश, अर्थात् इर्द-गिर्द उपस्थित उपरोक्त सामाजिक और भौतिक घटकों को समझने का प्रयास करते हैं तो वही पर्यावरण-अध्ययन कहलाता है। सामाजिक घटकों में संस्कृति (भाषा, मूल्य, दर्शन) तथा भौतिक/प्राकृतिक घटकों में हवा, पानी, मिट्टी, धूप, पशु-पक्षी, खनिज, जंगल/वनस्पति आदि शामिल हैं। इस दृष्टि से पर्यावरण-अध्ययन में हम एक ओर तो मानव और इसके द्वारा निर्मित समाज एवं सामाजिक क्रियाकलापों का अध्ययन करते हैं, और दूसरी ओर प्रकृति एवं उसकी कार्य-प्रणाली के पीछे के नियमों का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण-अध्ययन कोई एक विषय-क्षेत्र नहीं है, बल्कि विभिन्न विषय-क्षेत्रों का एक समूह है। यह तो हम जानते हैं कि हमारे परिवेश में मुख्यतः दो प्रकार के घटक हैं - प्राकृतिक एवं सामाजिक। इनका अध्ययन क्रमश: विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इसके अतिरिक्त अपने परिवेश की सार्थक समझ बनाने हेतु हमें इतिहास बोध एवं भौगोलिक समझ की भी आवश्यकता होती है। अतः पर्यावरण-अध्ययन में इतिहास और भूगोल भी शामिल हैं। इस प्रकार सीखने के जिस क्षेत्र को हम ‘‘पर्यावरण-अध्ययन’’ कहते हैं, उसमें विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, इतिहास एवं भूगोल समाहित होते हैं। इन क्षेत्रों की पद्धतियों एवं सामग्री में पर्याप्त भिन्नताएँ हैं । बच्चों के लिए चाहे इन भिन्नताओं को रेखांकित न करें लेकिन शिक्षक को तो ये भिन्नताएँ ध्यान में रखनी होंगी। क्योंकि इसका सीधा असर सिखाने के तौर-तरीकों पर पड़ता है।
पर्यावरण-अध्ययन शिक्षण के उद्देश्य
यदि शिक्षा का उद्देश्य समझ का विकास है तो प्राथमिक शिक्षा में हम उस विकास की आधारभूमि ही तैयार कर सकते हैं। और यदि पर्यावरण-अध्ययन वह क्षेत्र है जो उपरोक्त विषयों को समाहित करता है, तो पर्यावरण-अध्ययन का शिक्षाक्रम इन सभी क्षेत्रों में वह आधारभूमि तैयार करने में समर्थ होना चाहिए और यही पर्यावरण-अध्ययन की जटिलता/समस्या है। ये विषय-क्षेत्र (विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भूगोल एवं इतिहास) विभिन्न प्रकार की क्षमताओं की मांग करते हैं। इन विभिन्न मांगों को एक सूत्र में पिरोना कठिन जान पड़ता है। अतः शिक्षाक्रम निर्माता जानकारियों की सूची (जो बच्चों को पढ़ाना है) बनाकर छूट जाना चाहते हैं।
जानकारी के ढेर को हर विद्यार्थी एक सुव्यवस्थित और परस्पर सम्बन्धित ज्ञान के ढाँचे (Body of Knowledge) के रूप में व्यवस्थित नहीं कर पाता। अतः शिक्षक तथा विद्यार्थी दोनों का ध्यान केवल जानकारी एकत्र करने पर अटक जाता है। वे उसी को उद्देश्य समझने लगते हैं। लेकिन परस्पर असम्बद्ध जानकारी न तो व्यक्ति को निर्णय लेने में मदद करती है, न ही वह आगे विकास की आधारभूमि तैयार करती है।
पर यदि एक बार हम समझ-बूझकर स्वीकार कर लें कि हमारा उद्देश्य केवल जानकारी हस्तान्तरण नहीं है, बल्कि उन मूल क्षमताओं का विकास करना है जो जानकारी एकत्र करने, ज्ञान के सृजन और उसके व्यावहारिक उपयोग को सम्भव बनाती हैं, तो इसके लिए रास्ते ढूँढना असम्भव नहीं है।
हमें लगता है कि पर्यावरण-अध्ययन के सभी घटक विषयों के साथ न्याय कर सकने वाला ढाँचा (framework) बन सकता है। इस ढाँचे के केन्द्र में अध्ययन की वैज्ञानिक प्रक्रिया को तथा उस से सम्बन्धित क्षमताओं को रखना होगा। मगर सांस्कृतिक पक्ष की समझ की बात पूरी तरह से वैज्ञानिक प्रक्रिया में नहीं आएगी। इतिहास बोध एवं भौगोलिक समझ के लिए भी इस ढाँचे में स्थान बनाना होगा। इन सबसे मिला कर वह बौद्धिक उपकरण बन जाएगा जिसका उपयोग परिवेश के सार्थक अध्ययन के लिए किया जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि इस बौद्धिक उपकरण के विकास एवं आगे सतत् उपयोग से सम्बन्धित रूझानों/अभिवृत्तियों को उक्त ढाँचे में स्थान देना होगा।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि हम पर्यावरण-अध्ययन शिक्षण के उद्देश्यों को लिखें तो वे निम्न प्रकार के हो सकते हैं:
ज्ञान-निर्माण की क्षमताओं का विकास
- प्रश्न उठाने की क्षमता एवं उनका उत्तर देने के लिए परिकल्पनाएँ बनाने की क्षमता का विकास। रूझानों का विकास।
- परिकल्पनाओं की जाँच के तरीके सोच पाने एवं उन तरीकों को काम में लेने के लिए आवश्यक क्षमताओं का विकास।
- जानकारी के संकलन, उसको व्यवस्थित करने एवं अंकन (record) करने सम्बन्धी क्षमताओं का विकास।
- तथ्यों एवं जानकारियों में आपसी सम्बन्ध देख पाने की क्षमताओं का विकास।
- निष्कर्ष निकालने एवं समालोचनात्मक चिन्तन की क्षमता का विकास।
- निष्कर्षों के व्यावहारिक परिणामों को समझ पाने की क्षमता का विकास।
- ज्ञान निर्माण की इन क्षमताओं का रूप सामाजिक विज्ञान और इतिहास में कुछ भिन्न हो सकता है। पर इस प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा ज्ञान निर्माण में सामान्य है।
- अपने परिवेश से सम्बन्धित प्राकृतिक जानकारियों और प्राकृतिक परिस्थिति की समझ।
- अपने परिवेश की सामाजिक जानकारी एवं सामाजिक परिस्थिति की यथोचित समझ।
निश्चय ही ये उद्देश्य बहुत संक्षेप में और अमूर्त स्तर पर हैं, लेकिन ये पर्यावरण-अध्ययन में शिक्षण विधि को एक दिशा दे सकते हैं।
पर्यावरण-अध्ययन का शिक्षण - कुछ ध्यान रखने लायक बातें:
- बच्चा जब प्राथमिक विद्यालय में आता है तब न तो वह एक खाली बर्तन (empty vessel) और न ही कोरी स्लेट (plain slate) होता है। बल्कि वह अपने साथ ज्ञान की एक पोटली लेकर आता है। उस पोटली में उसका वह सारा ज्ञान होता है जो उसने विद्यालय में आने से पहले अपने परिवेश में रह कर अपनी जिज्ञासावश प्राप्त किया होता है। इस पोटली में उसके खेल, सवाल, चोट के अनुभव, खाने के स्वाद, भ्रम, भ्रान्तियाँ, अभिवृत्तियाँ, दुःखी-सुखी पलों के अनुभव, प्राकृतिक-सामाजिक परिघटनाओं की अपनी व्याख्याएँ होती हैं। इस पूरे ज्ञान की संरचना उसके मस्तिष्क में होती है। सीखने-सिखाने में इस संरचना (अर्थात बच्चे पहले से जो जानते हैं) का अत्यधिक महत्व है। नया कुछ सिखाने में हमें इस संरचना को ही पुर्नव्यवस्थित (restructure) करना होता है। उदाहरण के तौर पर, यदि हमें ‘‘वाहन’’ की अवधारणा बच्चों को सिखाना है तो हमें पहले यह जानना होगा कि वे किन-किन वाहनों के बारे में जानते हैं। जैसे – ऊँट-गाड़ी, बैलगाड़ी, साईकिल, बस आदि। बच्चों के इस ज्ञान से जोड़ते हुए हम ‘‘वाहन’’ की अवधारणा उन्हें आगे समझा सकते हैं। अतः किसी भी नई अवधारणा का परिचय बच्चों के पूर्व ज्ञान से जोड़ कर किया जाना चाहिए।
- बच्चों के मन में उन के परिवेश में घटने वाली विभिन्न परिघटनाओं (phenomena) को लेकर विभिन्न भ्रम, भ्रान्तियाँ तथा असंगत व्याख्याएँ भी हो सकती हैं। उदाहरणार्थ - भूकम्प इसलिए आता है, क्योंकि पृथ्वी को एक बैल ने अपने सींग पर उठा रखा है और जब वह पृथ्वी को अपने एक सींग से दूसरे सींग पर पलटता है तो पृथ्वी के हिलने से भूकम्प आता है। यह धारणा भूकम्प की व्याख्या के लिये उपयुक्त नहीं है। यहाँ बच्चे को इस अनुपयुक्त धारणा से निकालने का तरीका यह है कि इस धारणा के प्रति बच्चे में एक असन्तोष पैदा हो। असन्तोष कैसे पैदा होगा? सवाल पूछने से। शिक्षक इस बच्चे से सवाल पूछ सकता है कि क्या इतना विशाल बैल हो सकता है जो पृथ्वी को अपने सींग पर उठा ले? यहाँ अनेक सम्भावनाएँ हैं - मानो वह कहता है कि हाँ, हो सकता है। तो उससे अन्य एक सवाल पूछा जा सकता है कि अच्छा बताओ, वह बैल कहाँ खड़ा है? यहाँ पूरी सम्भावना है कि बच्चा सोचने पर मजबूर हो जाएगा कि उसकी धारणा में कहीं तो गड़बड़ है। अब बच्चे की वह भावभूमि बन गई होगी जहाँ वह भूकम्प के बारे में और अधिक जानने-समझने को तत्पर होगा। यहाँ से आगे शिक्षक कई तरीके अपना सकता है - कुछ पढ़कर पता करना, सीधा बताना एवं समझाना। समस्या भूकम्प जितनी जटिल न हो तो बच्चों को ऐसे अनुभव देने चाहिए कि वह स्वयं दूसरी बेहतर परिकल्पना बना सके।
- यहाँ एक अन्य बात भी महत्वपूर्ण है - बच्चों को यह अहसास कराना होगा कि उनके मन में जो विभिन्न प्रश्न उठते हैं और जिनके उत्तर भी वे अपने तर्क के अनुसार अपने मन में सोचते हैं, इन उत्तरों/विचारों का सत्यापन सम्भव है। यह सत्यापन करना कि वे गलत हैं या सही, उनके वश में है। ऐसा सोचने के लिए शिक्षक को उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। बार-बार सत्यापन प्रक्रियाओं से गुजरने का मौका देना होगा। उदाहरणार्थ, ‘‘हमारे चारों तरफ वायु है’’ - यह दावा सही है या गलत, इसके लिए बच्चों से विभिन्न प्रयोग करवाएँ और इसके आधार पर स्वयं निष्कर्ष निकालने दें।
- पर्यावरण-अध्ययन के शिक्षण में अपने विचारों और परिकल्पनाओं को दूसरों के सामने रख कर उनकी विवेचना होना बहुत जरूरी है। अतः कक्षा में संवाद एवं विचार-विमर्श का माहौल बनाए रखना चाहिए।
No comments:
Post a Comment